यह त्यौहार पहाड़ की कृषि परंपरा, और देवी-देवताओं को समर्पित है. जिसमें आकर्षक मुखौटे में पात्र, बैल, हिरन-चीतल, मछुआरे, धान रोपती महिलाएं, हुक्का-चिलम पीते बुजुर्ग आदि चीजों का अभिनय होता है. जो यहां की प्राचीन सभ्यता को दिखाती है.
पिथौरागढ़ में सातूं-आठूं पर्व थरकोट की हिलजात्रा के बाद अब समाप्त हो गया है| इस साल ये पर्व एक महीने से ज्यादा चला. पिथौरागढ़ मुख्यालय को 6 पट्टी सोर भी कहा जाता है| इन 6 पट्टियों से मिलकर पिथौरागढ़ मुख्यालय बना है|ये शहर से लगे ग्रामीण क्षेत्र हैं|और इन सभी पट्टियों में यहां के लोकपर्व भी बारी-बारी से मनाए जाते हैं| कुमाऊं का सबसे लोकप्रिय पर्व सातूं-आठूं और हिलजात्रा भी यहां अलग-अलग दिन मनाया जाता है| थरकोट क्षेत्र में भी जिसे रावलपट्टी नाम से भी जाना जाता है|यहां भी हिलजात्रा के आयोजन होने के साथ ही अब इस पर्व का समापन हो गया है|
पिथौरागढ़ के अनेक गांवों में हिलजात्रा को मनाने की परंपरा है. हिलजात्रा का मतलब है कीचड़ का उत्सव, पहाड़ों में बारिश के समय फसलों के पक जाने के बाद ये उत्सव मनाया जाता है|जिसमें सभी गांव वाले इकट्ठा होकर मेले का आयोजन करते है| जिसमें मनोरंजन के लिए शुरू होता है हिलजात्रा पर्व| यह त्यौहार पहाड़ की कृषि परंपरा, और देवी-देवताओं को समर्पित है| जिसमें आकर्षक मुखौटे में पात्र, बैल, हिरन-चीतल, मछुआरे, धान रोपती महिलाएं, हुक्का-चिलम पीते बुजुर्ग आदि चीजों का अभिनय होता है| जो यहां की प्राचीन सभ्यता को दिखाती है|
लखिया भूत बने आकर्षण का केंद्र
इसे हर गांव में मनाने का तरीके में भी भिन्नता देखने को मिलती है| कुमौड़ की हिलजात्रा में जहां वीरभद्र के रूप में लखिया भूत विशेष आकर्षण होता है| तो वहीं थरकोट की हिलजात्रा में नंदी बैल का मुख्य अभिनय रहता है| नंदी बैल को देखने सारे गांव वाले इक्कठा होते हैं| जिसके बाद यहां सातूं-आठूं पर्व का समापन हो जाता है| इस क्षेत्र के स्थानीय जनप्रतिनिधि और संस्कृति के जानकार कोमल मेहता ने इस पर्व की महत्व बताते हुए |कहा कि नई पीढ़ी भी यहां के लोकपर्वो में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है| जो पहाड़ की सभ्यता को जीवित रखने के लिए बेहद जरूरी है|
शिव-पार्वती कैलाश रवाना
थरकोट में हिलजात्रा के समापन के साथ ही मान्यता के अनुसार ग्रामीण पार्वती को शिव के साथ वापस कैलाश की ओर रवाना करते है| जिनके विदाई के लिए पूरा गांव इक्कठा होता है| यहां ऐसी मान्यता है कि इन दिनों मां पार्वती अपने मायके आती है|और भगवान शिव उन्हें लेने के लिए कैलाश से आते हैं| पहाड़ों के इन्हीं रीति-रिवाजों से भी उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है|
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